लाहौर की संधि (1846) : इतिहास का पूछा जाने वाला सवाल ।
लाहौर की संधि (1846)
सिक्ख सम्राट रंजीत सिंह (1799–1839) के निधन के बाद पंजाब में आंतरिक उथल-पुथल बढ़ गई और दो प्रमुख गुटों (सिंधनवालिया व डोगरा) के बीच संघर्ष छिड़ गया। ऐसी ही परिस्थितियों में सिक्खों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच तनाव बढ़ा। सिक्ख एवं ब्रिटिश दोनों ओर की उकसाने वाली घटनाओं ने स्थिति को और बिगाड़ दिया, और 13 दिसंबर 1845 को गवर्नर-जनरल हार्डिंग ने सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (दिसंबर 1845 – फरवरी 1846) में अंग्रेजों ने सोबरा (Sobraon) की लड़ाई में सिक्खों को पराजित किया। युद्ध के अंत में 20 फरवरी 1846 को अंग्रेजी सेनाएँ लाहौर पर पहुंचीं और सिक्ख राजधानी पर कब्ज़ा कर लिया। इसके परिणामस्वरूप महाराजा दलीप सिंह (उम्र सात वर्ष) को लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
लाहौर की संधि के मुख्य कारण
लाहौर की संधि की मूल वजह प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में सिक्ख साम्राज्य की हार थी। पंजाब की गहरी अस्थिरता व अंदरूनी झगड़े, तथा दोनों पक्षों के उकसाने वाले आचरण ने युद्ध को जन्म दिया और अंततः दोनों पक्ष शांति के लिए बाध्य हुए। अंग्रेज युद्ध व्यय की भरपाई चाहते थे तथा पंजाब को दक्षिण की ओर सुरक्षित बनाना चाहते थे। सिक्खों की हार ने अंग्रेजों को कड़ाई से शर्तें थोपने का अवसर दिया।
लाहौर की संधि प्रमुख शर्तें
– महाराजा ने जालंधर डूब (सतलुज एवं बीयास नदियों के बीच का क्षेत्र) के सभी किले, भूमियाँ एवं अधिकार कम्पनी को सौंपी।
– उन्होंने 1.5 करोड़ रुपये की युद्ध-व्यय हर्जाना राशि देने पर सहमति दी; चूंकि वह राशि उपलब्ध नहीं हो सकी, अतिरिक्त पहाड़ी क्षेत्र (बीयस से इंदुस नदी तक) जिसमें कश्मीर और हज़ारा शामिल थे, अंग्रेजों को दे दिए गए।
– सिक्ख सेना को ‘द्रोही’ घोषित कर भंग कर दिया गया और नई सेना की संख्या केवल 20,000 पैदल एवं 12,000 घुड़सवार तक सीमित की गई।
– लाहौर की सभी युद्धकालीन तोपें ब्रिटिश के हवाले कर दी गईं। ब्रिटिशों को लाहौर में एक वर्ष तक सुरक्षा के लिए तैनात रहने की अनुमति मिली। महाराजा को ब्रिटिश की इजाजत के बिना कोई यूरोपीय या अमेरिकी राष्ट्रीय अपनी सेवा में रखने की मनाही की गई। (साथ ही गुलाब सिंह को उसके राज्य की स्वतंत्रता मान्यता दी गई।)
लाहौर की संधि प्रभाव
इस संधि से पंजाब का अधिकांश हिस्सा ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया। जल्लंधर डूब सहित जम्मू, कश्मीर और हज़ारा के क्षेत्र अंग्रेजी अधिकार क्षेत्र में शामिल हो गए। महाराजा दलीप सिंह को नाम मात्र का शासक माना गया और रानी जिंद के अधीन रेजीडेंसी प्रणाली लागू की गई, जिससे ब्रिटिश प्रभाव और बढ़ गया। राज्य पर ब्रिटिश रेजीडेंट (सर हेनरी लॉरेंस) की नियुक्ति हुई और पंजाब के राजस्व एवं सुरक्षा मामलों में कम्पनी का दबदबा बढ़ गया। अंग्रेजों को अरबों रुपये की हर्जाना राशि मिली और बाद में (अमृतसर की संधि, मार्च 1846) गुलाब सिंह के माध्यम से कश्मीर के अधिग्रहण से भी लाभ मिला।
लाहौर की संधि ऐतिहासिक महत्व
लाहौर संधि ने सिक्ख साम्राज्य की स्वतंत्रता को भारी क्षति पहुंचाकर ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। इस संधि ने प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के पश्चात पंजाब पर ब्रिटिश आधिपत्य की नींव रखी, जिसके चलते अंततः 1849 में दूसरा आंग्ल-सिख युद्ध हुआ और पूरा पंजाब ब्रिटिश भारत में विलयित हो गया। इन समझौतों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को उत्तरी भारत में अधिकार बढ़ाने का अवसर दिया तथा सिखों की संप्रभुता का अंत किया।